भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का साहित्यिक सम्मिलन में सम्बोधन (HINDI)
नई दिल्ली : 29.05.2025

साहित्य पर केन्द्रित इस सम्मिलन में आप सबके बीच आकर मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है।
विद्यार्थी जीवन से ही मुझमें साहित्य और साहित्यकारों के प्रति आदर और कृतज्ञता का भाव रहा है। समय के साथ, साहित्य के प्रति विशेष सम्मान का यह भाव और अधिक गहरा होता गया है। मैं साहित्यकारों से मिलती रही हूं। मेरी इच्छा थी कि राष्ट्रपति भवन में अनेक साहित्यकारों का आगमन हो। इस आयोजन के लिए मैं संस्कृति मंत्रालय और साहित्य अकादेमी की हृदय से सराहना करती हूं।
लगभग एक सौ चालीस करोड़ देशवासियों के हमारे विशाल परिवार में अनेक भाषाएं हैं और अनगिनत बोलियां हैं तथा साहित्यिक परम्पराओं की असीम विविधता है। लेकिन इस विविधता में भारतीयता का स्पंदन महसूस होता है। भारतीयता का यही भाव हमारे देश के सामूहिक अवचेतन में भी रचा-बसा है। देश की सभी भाषाओं और बोलियों को मैं अपनी ही भाषा और बोली समझती हूं। मैं मानती हूं कि सभी भाषाओं का साहित्य मेरा साहित्य है। अपनेपन की इस भावना को व्यक्त करने के लिए मैं ओड़िआ भाषा में लिखित, उत्कलमणि गोपबंधु दास की इन पंक्तियों का प्रायः उल्लेख करती हूं:
“थिले जहीं तहीं भारत बक्षरे मणिबि मुं अछि आपणा कक्षरे मो नेत्रे भारत-शिला शालग्राम प्रति स्थान मोर प्रिय पुरी-धाम”
अर्थात मैं भारत-माता की गोद में जहां कहीं भी रहूं, मैं मानता हूं कि मैं अपने ही घर में हूं। मेरी दृष्टि में भारत-भूमि का एक-एक पत्थर शालिग्राम की तरह उपासना योग्य है। भारत का प्रत्येक स्थान मुझे जगन्नाथ पुरी धाम की तरह प्रिय है।
देवियो और सज्जनो,
साहित्यकार का सत्य, इतिहासकार के तथ्य से अधिक प्रभावी सिद्ध हुआ है, क्योंकि वह जन-गण के जीवन-मूल्यों को व्यक्त करता है। ओड़िशा के मयूरभंज जिले में मेरा गांव है। वहीं 'सीताकुंड' नाम का एक पर्यटन स्थल है। कहा जाता है कि वनवास के समय सीता और राम ने वहां कुछ समय बिताया था। इस जनश्रुति का तथ्य-परक होना महत्वपूर्ण नहीं है। बड़ी बात यह है कि आदिकवि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण और विभिन्न भाषाओं में रची गई राम और सीता की कथाओं ने भारत को भावात्मक एकता के सूत्र में बांधकर रखा है।
देवियो और सज्जनो,
मैं अपने विद्यार्थी-जीवन की एक बात आप सबके साथ साझा करना चाहती हूं। भारत के सुप्रसिद्ध कथाकार, व्यासकवि फ़कीरमोहन सेनापति द्वारा लिखी गई 'रेवती' नामक अमर कहानी ने मेरे अन्तर्मन पर गहरा प्रभाव डाला था। यह कहानी उन्नीसवीं शताब्दी में लिखी गई थी। रेवती नाम की एक लड़की की पढ़ाई करने की ललक इस कहानी का मूल कथ्य है। दादी के मना करने के बावजूद रेवती पढ़ाई के लिए ज़िद करती है। उसके पिता उसकी पढ़ाई की व्यवस्था कर देते हैं। उन दिनों, देश के अधिकांश क्षेत्रों में, लड़कियों की पढ़ाई एक असंभव-सी बात थी। इस कहानी के ज़रिये नारी- शिक्षा के प्रति समाज में सकारात्मक सोच उत्पन्न करने का अमूल्य साहित्यिक प्रयास किया गया था। मेरे जैसी अनेक महिलाओं के जीवन पर उस कहानी का सकारात्मक प्रभाव पड़ा होगा। ऐसे साहित्य को परिवर्तन का साहित्य कहा जा सकता है।
इस सम्मिलन में ‘भारत का नारी-वादी साहित्य’ यानी feminist literature पर एक विशेष सत्र भी रखा गया है। यह बहुत महत्वपूर्ण है और सराहनीय भी है।
द्रौपदी के चरित्र पर आधारित प्रतिभा राय का ओड़िआ उपन्यास ‘याज्ञसेनी’ लोकप्रियता के नित नए प्रतिमान स्थापित करता जा रहा है। मुझे बताया गया है कि इस उपन्यास के लगभग एक सौ बीस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। किसी महिला रचनाकार द्वारा महिला चरित्र पर केन्द्रित इस उपन्यास की लोकप्रियता साहित्य प्रेमियों के लिए प्रसन्नता का विषय है। इससे यह विश्वास भी दृढ़ होता है कि यदि रचना में संप्रेषणीयता हो तो पाठक साहित्यिक कृतियों का बढ़-चढ़कर स्वागत करते हैं।
देवियो और सज्जनो,
परिवर्तनशील संदर्भों के बीच स्थाई मानवीय मूल्यों की स्थापना कालजयी साहित्य की पहचान होती है। जैसे-जैसे समाज और सामाजिक संस्थान बदले हैं, चुनौतियां और प्राथमिकताएं बदली हैं, वैसे-वैसे साहित्य में भी बदलाव देखे गए हैं। लेकिन साहित्य में कुछ ऐसा भी होता है जो सदियों बाद भी प्रासंगिक बना रहता है। स्नेह और करुणा के साहित्यिक संदर्भ बदलते रहते हैं किन्तु उनकी भाव-भूमि नहीं बदलती।
साहित्य से प्रेरणा लेकर मनुष्य सपने देखता है और उन्हें साकार करता है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है:
“मानबेर माझे आमि बांचिबारे चाइ”
अर्थात ‘मैं मानवता के बीच जीना चाहता हूं।’ गुरुदेव की इस पंक्ति से जीवन के प्रति आस्था और मानवता के प्रति लगाव की भावना जागृत होती है। भारतीय काव्य-जगत को समृद्ध करनेवाले प्रख्यात ओड़िआ कवि गंगाधर मेहेर ने लिखा है:
"मूँ जे अमृतसागर बिंदु”
अर्थात् मैं तो अमृतसागर की एक बूंद हूं। वास्तव में जीवन-प्रवाह अविरल और अनंत है। धाराएं बदलती हैं, जल-तत्व वही रहता है। साहित्य हमें यही संदेश देता है।
देवियो और सज्जनो,
आज का साहित्य उपदेशात्मक नहीं हो सकता। आज का साहित्य प्रवचन नहीं हो सकता। आज का साहित्य नीति-ग्रंथ नहीं हो सकता। आज का साहित्यकार सह-यात्री की तरह साथ-साथ चलता है, देखता है और दिखाता है; अनुभव करता है और कराता है।
मैं आशा करती हूं कि इस साहित्य सम्मिलन में वक्ताओं और प्रतिभागियों के बीच रचनात्मक संवाद स्थापित होगा। हमारे साहित्यकार, अपनी अभिव्यक्ति के चरम-उत्कर्ष को प्राप्त करें, इसी शुभकामना के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देती हूं।
धन्यवाद!
जय हिंद!
जय भारत!