भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का अलचिकि शताब्दी महोत्सव के अवसर पर संबोधन (HINDI)
जमशेदपुर : 29.12.2025
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आज अलचिकि लिपि के शताब्दी महोत्सव में शामिल होकर मुझे अत्यंत आनंद का अनुभव हो रहा है।
भारत में अनेक जनजातीय समुदाय हैं जिनमें संताल भी शामिल हैं। संताल समुदाय के लोग भारत के विभिन्न क्षेत्रों के अलावा नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और मॉरीशस में भी निवास करते है। संतालों की अपनी प्राचीन भाषा, साहित्य और संस्कृति है। लेकिन एक शताब्दी पहले, संताली भाषा की अपनी लिपि नहीं होने के कारण रोमन, देवनागरी, ओड़िआ और बांग्ला आदि लिपियों का उपयोग किया जाता था। इन लिपियों में संताली भाषा के अनेक शब्दों का उच्चारण सही रूप से नहीं हो पा रहा था।
वर्ष 1925 में, ओड़िशा राज्य के मयूरभंज जिले के अंतर्गत राइरंगपुर के पास स्थित दांडबोस गांव में जन्मे इतिहास पुरुष पंडित रघुनाथ मुर्मु जी ने अलचिकि लिपि का आविष्कार किया। उसके बाद संताली भाषा के लिए अलचिकि लिपि का प्रयोग किया जा रहा है।
अलचिकि लिपि, संताल समुदाय का एक सशक्त परिचय है। विश्वभर में संतालों की पहचान अलचिकि से हो रही है और अलचिकि संतालों के बीच एकता स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम है।
किसी लिपि का शताब्दी वर्ष समारोह आयोजित करना एक अत्यंत ऐतिहासिक अवसर है। यह बहुत ही गर्व और हर्ष का विषय है कि देश-विदेश के अनेक क्षेत्रों में, विभिन्न संगठनों द्वारा, ये समारोह आयोजित किए जा रहे हैं। मुझे बताया गया है कि ओड़िशा सरकार द्वारा भी अलचिकि के शताब्दी वर्ष समारोह का आयोजन किया गया है।
हमारे देश के साथ-साथ विदेशों में भी अलचिकि को पहचाना जा रहा है। डिजिटिल प्लेटफार्मों में भी अलचिकि का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है।
राष्ट्रपति भवन की वेबसाइट पहले अंग्रेजी और हिंदी में ही थी। आप सबको भी यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस वर्ष जुलाई, 2025 से इसे 22 भारतीय भाषाओं में देखने की सुविधा प्रदान की गई है। संताली भाषा के लिए अलचिकि लिपि का प्रयोग किया गया है।
झारखण्ड में राज्यपाल के मेरे कार्यकाल के दौरान लोकभवन का नाम अलचिकि लिपि में लिखा गया था। उसके साथ-साथ सभी सरकारी कार्यालयों का नाम भी अलचिकि लिपि में लिखा गया। संताल बहुल क्षेत्रों के स्कूल, कॉलेज, कार्यालयों आदि के नामों को भी अलचिकि में लिखना एक सकारात्मक प्रयास सिद्ध होगा। उसके साथ-साथ दीवारों की सजावट में भी अलचिकि के सुलेख को शामिल करने से गलियां और सड़कें और भी आकर्षक लगती हैं।
अलचिकि के शताब्दी वर्ष के समारोहों के सम्पन्न हो जाने के बाद भी इस लिपि के प्रचार-प्रसार के कार्यक्रम को पूरे उत्साह के साथ आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।
हिंदी, अंग्रेजी, ओड़िआ, बांग्ला आदि भाषाओं में बच्चे पढ़ाई करते हैं, यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन, साथ-साथ अपनी मातृभाषा संताली को अलचिकि लिपि में सीखना बच्चों के समग्र विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस संदर्भ में मुझे एक ओड़िआ कविता की पंक्तियां याद आती हैं:
‘आऊ जेते भाषा पारूछ शिख
निज मातृभाषा महत रख’
संताली भाषा का विकास, प्रचार-प्रसार एवं साहित्यिक रचनाएं, अनेक लेखकों और सक्रिय भाषा प्रेमियों के सामूहिक प्रयास से निरंतर जारी है। इसमें अपने सामर्थ्य के अनुसार योगदान देने वाले लेखकों एवं शोधकर्ताओं को मैं हृदय से धन्यवाद देती हूं।
संताली भाषा के प्रसार और मान्यता में मेरा भी विनम्र योगदान रहा है। ओड़िशा सरकार में मंत्री रहने के दौरान संताली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने में मैंने भी हर संभव प्रयास किया था। उस समय श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी भारत के प्रधानमंत्री थे। संताली भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने का अनुरोध करने के लिए मैं उनसे मिली थी। उनके आशीर्वाद से ही 22 दिसम्बर, 2003 को संताली भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। आज के इस शुभ अवसर पर मैं श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति हृदय की गहराई से आभार व्यक्त करती हूं।
मातृभाषा का प्रयोग ही जीवन को सफलता और सार्थकता प्रदान करता है। गुरू गमके पंडित रघुनाथ मुर्मु का कथन है:
जानाम आयोय रेंगेज रेहं
उनी गेय हाःरा-हा
जानाम रड़दो निधान रेहं
अना तेगे मारांग्-आ।
इस कथन का अर्थ है: जन्म देने वाली मां गरीब होने पर भी पालन- पोषण करके हमें बड़ा करती है। वैसे ही मातृभाषा के दीन अथवा लाचार रहने पर भी हम उसी मातृभाषा के सहारे आगे बढ़ सकते हैं। अलचिकि के संबंध में गुरु गमके का एक और कथन है:
अल ताबो दिलाग खान
आबो बो दिलाग आ
हिरिज पासिर काते बो आदोग आ।
इस कथन का अर्थ है: लिपि अथवा शिक्षा की उपेक्षा करना स्वयं की उपेक्षा करने जैसा है। ऐसा करने से, एक दिन हम सब विभाजित होकर अपनी पहचान खो देंगे। एक और महत्वपूर्ण कथन है:
अल द बाराही काना
आबय तल दोहो बोना
मारसाल होर तेय अर ईदि बोना।
इस कथन का अर्थ है: लिपि अथवा शिक्षा एक रस्सी जैसी है जो हम सबको एकता के सूत्र में बांधकर ज्ञान अथवा चेतना के प्रकाश की ओर खींचकर ले जाती है।
देवियो और सज्जनो,
लोकप्रिय बाल पत्रिका “चंदा मामा” संताली भाषा एवं अलचिकि लिपि में प्रकाशित हुई थी। इस प्रकाशन के पीछे मेरा भी प्रयास था। मुझे बताया गया है कि वर्ष 2005 से केंद्रीय साहित्य अकादेमी द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं की तरह संताली भाषा में साहित्य-सृजन करने वाले लेखकों को पुरस्कृत किया जाता है। यह इस भाषा के साहित्य का समुचित सम्मान है।
देवियो और सज्जनो,
बोली, गीत एवं आह्वान मंत्रों के माध्यम से संताली साहित्य को शक्ति प्राप्त होती रही है। संताली भाषा के महान लेखक माझी रामदास टुडु 'रास्का' का प्रथम लेखन बांग्ला लिपि में प्रकाशित हुआ था। महान कवि साधू रामचांद मुर्मु ने संताली भाषा में अत्यंत जीवंत और रोचक कविताओं की रचना की है। गुरु गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मु द्वारा अलचिकि लिपि के आविष्कार के साथ-साथ उनके द्वारा रचित 'दाड़े गे धन','खेरवाल बिर' 'बिदु-चांदान', 'सिदु-कान्हू संताल हूल' जैसी कालजयी कृतियों के माध्यम से संताल साहित्य समृद्ध हुआ है।
यह प्रसन्नता की बात है कि आजकल अनेक लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से संताली साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। अनेक प्रसिद्ध संताली लेखक, केंद्रीय साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत किए गए हैं। मुझे बताया गया है कि विगत 11 वर्षो में सौ से अधिक जनजातीय समुदाय के लोगों को ‘पद्म पुरस्कारों’ से अलंकृत किया गया है। साहित्यकारों को अपने लेखन के माध्यम से लोगों को जागृत करने की आवश्यकता है। विशेषकर जनजातीय समाज के लोगों को जागृत करना एक महान कार्य है।
देवियो और सज्जनो,
जनजातीय समुदायों की जीवन-शैली प्रकृति के साथ जुड़ी हुई है। संतालों के पूजास्थल को जाहेरथान कहा जाता है। जाहेरथान साल, महुआ, अर्जुन आदि पेड़ों से भरा रहता है। पेड़-पौधों के साथ जनजातीय समुदायों का रिश्ता अत्यंत आत्मिक होता है। निरंतर बढ़ रही ग्लोबल वॉर्मिग की समस्या का समाधान करने की आवश्यता है। पेड़-पौधों से हमारी धरती का संरक्षण होता है। पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा हमें भावी पीढ़ियों तक पहुंचानी है। इसलिए समय की पुकार है कि हम सभी पेड़-पौधे लगाएं। हमें पर्यावरण संरक्षण के साथ तालमेल बनाते हुए आधुनिक विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना है।
देवियो और सज्जनो,
भाषा और साहित्य, समुदायों को एकता के सूत्र में जोड़कर रखते हैं। विभिन्न भाषाओं के बीच साहित्यिक आदान-प्रदान से भाषाएं समृद्ध होती हैं। यह आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही संभव है। संताली भाषा के विद्यार्थियों को, अनुवाद के द्वारा, अन्य भाषाओं से परिचित कराने की आवश्यकता है। उसी तरह, संताली साहित्य को भी, अनुवाद के माध्यम से, अन्य भाषाओं के विद्यार्थियों तक पहुंचाने का प्रयास किया जाना चाहिए। मुझे विश्वास है कि अखिल भारतीय संताली लेखक संघ यह कार्य अच्छी तरह करेगा।
जनजातीय समुदायों के लोगों का स्नेह और सम्मान मुझे निरंतर प्राप्त हो रहा है। इससे मुझे शक्ति मिलती है। सभी देशवासियों सहित, जनजातीय समुदायों के लोग मिलजुकर अपनी पहचान को बनाए रखते हुए आधुनिक विकास के मार्ग पर तेज गति से आगे बढ़ें, इसी मंगलकामना के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देती हूं।
धन्यवाद!
जय हिन्द!
जय भारत!
