भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का 58वें ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में सम्बोधन (HINDI)
नई दिल्ली : 16.05.2025

आज ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए जगद्गुरू रामभद्राचार्य जी को मैं हार्दिक बधाई देती हूं। इस समारोह में गुलजार साहब उपस्थित नहीं हो पाए। मैं उनको भी ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए बधाई देती हूँ। मैं उन्हें शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ कि वे शीघ्र ही पूर्णतया स्वस्थ और सक्रिय होकर कला, साहित्य, समाज और देश को निरंतर योगदान देते रहें।
देवियो और सज्जनो,
‘भारतीय ज्ञानपीठ’, इन दो शब्दों में भारत-भूमि में विकसित ज्ञान तथा सृजन की परम्पराओं की मूलभूत एकता व्यक्त होती है। यह एकता पूरे भारत में व्याप्त भावनात्मक, सांस्कृतिक और साहित्यिक एकता की अभिव्यक्ति है। भारत की सभी भाषाओं के साहित्य में भारत की मिट्टी की महक होती है। इस अखिल भारतीय चेतना को व्यक्त करते हुए उत्कल-मणि पंडित गोपबंधु दास ने लिखा था:
“थिले जहीं तहीं भारत बक्षरे
मणिबि मुं अछि आपणा कक्षरे
मो नेत्रे भारत-शिला शालग्राम
प्रति स्थान मोर प्रिय पुरी-धाम”
अर्थात मैं भारत-माता की गोद में जहां कहीं भी रहूं, मैं मानता हूं कि मैं अपने ही घर में हूं। मेरी दृष्टि में भारत-भूमि का एक-एक पत्थर शालिग्राम की तरह उपासना योग्य है। भारत का प्रत्येक स्थान मुझे जगन्नाथ पुरी धाम की तरह प्रिय है।
देवियो और सज्जनो,
साहित्य समाज को जोड़ता भी और जगाता भी है। उन्नीसवीं सदी के सामाजिक जागरण से लेकर बीसवीं सदी में हमारे स्वाधीनता संग्राम से जन- जन को जोड़ने में कवियों और रचनाकारों ने महानायकों की भूमिका निभाई है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित ‘वंदे मातरम’ गीत लगभग डेढ़ सौ वर्षों से भारत-माता की संतानों को जागृत करता रहा है, और सदैव करता रहेगा। साहित्य की इस शक्ति को सम्मान देते हुए हमारी प्राचीन परंपरा में कवि अर्थात रचनाकार को सबसे अधिक सम्मान दिया गया है और कहा गया है:
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:
अर्थात ‘सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा कवि हैं, मनीषी हैं, सर्वत्र व्याप्त हैं और स्वयंभू हैं।’
वाल्मीकि, व्यास और कालिदास से लेकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे कालजयी महाकवियों की रचनाओं में हमें जीवंत भारत का स्पंदन महसूस होता है। यह स्पंदन ही भारतीयता का स्वर है। हम सबकी भारतीयता चेतना के स्तर पर तो है ही, वह हमारे अवचेतन का भी अंग है।
मैं जिस परिवेश में पली-बढ़ी हूं उसमें संथाली तथा ओडिआ भाषाएं प्रमुख हैं। आज 140 करोड़ देशवासी मेरा परिवार है। देश की सभी भाषाएं और बोलियां मेरी अपनी हैं। लेकिन, ओडिआ और संथाली भाषाओं के साहित्य से मेरा अधिक संपर्क रहा है। ओडिआ के आदिकवि सारला दास की महाभारत, बलराम दास की दांडी-रामायण तथा अति-बड़ी जगन्नाथ दास के भागवत पुराण का मुझ पर गहरा प्रभाव रहा है। इसी प्रकार, संथाली में रघुनाथ मुर्मु जी के ‘बिदु चांदान’ तथा ‘खेरवाड बीर’ नामक नाटकों का जनमानस में बहुत प्रभाव देखा जाता है। साहित्य हमारी सोच का निर्माण करता है।
देवियो और सज्जनो,
वर्ष 1965 से, विभिन्न भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्यकारों को पुरस्कृत करके, ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ ने, साहित्य-सेवा के माध्यम से देश की सेवा की है। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकारों की कृतियों को समग्र रूप से देखा जाए तो उनमें हमारे देश के सभी कालखंडों, सभी क्षेत्रों, सामाजिक वर्गों, चुनौतियों और आकांक्षाओं के गहन शब्द-चित्र दिखाई देते हैं।
भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्यकारों को पुरस्कृत करने की प्रक्रिया में, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के चयनकर्ताओं ने श्रेष्ठ साहित्यकारों का चयन किया है और इस पुरस्कार की गरिमा का संरक्षण और संवर्धन किया है। इसके लिए, मैं वर्तमान और अतीत के सभी चयनकर्ताओं, प्रवर परिषद के अध्यक्षों तथा भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट के प्रबंधन की सराहना करती हूं। वर्तमान प्रवर परिषद की अध्यक्ष श्रीमती प्रतिभा राय जी स्वयं एक महान साहित्यकार हैं। मुझे बताया गया है कि उनके उपन्यास याज्ञ-सेनी के अब तक लगभग 120 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी इस पुस्तक की ऐसी लोकप्रियता, अच्छे साहित्य के प्रति पाठकों में उत्साह को रेखांकित करती है और साहित्य की अस्मिता के बारे में आश्वस्त करती है। श्रीमती प्रतिभा राय जी को वर्ष 2011 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनके अलावा ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महिला रचनाकारों में आशापूर्णा देवी, अमृता प्रीतम, महादेवी वर्मा, कुर्रतुल-ऐन-हैदर, महाश्वेता देवी, इंदिरा गोस्वामी और कृष्णा सोबती जैसी असाधारण महिलाएं शामिल हैं। इन महिला रचनाकारों ने भारतीय परंपरा और समाज को विशेष संवेदना के साथ देखा है, अनुभव किया है तथा हमारे साहित्य को समृद्ध किया है। मैं चाहूंगी कि इन श्रेष्ठ महिला रचनाकारों से प्रेरणा लेकर हमारी बहनें और बेटियां साहित्य सृजन में बढ़-चढ़कर भागीदारी करें और हमारी सामाजिक सोच को और अधिक संवेदनशील बनाएं।
देवियो और सज्जनो,
श्री रामभद्राचार्य जी ने श्रेष्ठता के प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। आप अनेक प्रतिभाओं से सम्पन्न हैं तथा आपके योगदान बहुआयामी हैं। आपने शारीरिक दृष्टि से बाधित होने के बावजूद अपनी अंतर्दृष्टि, बल्कि दिव्यदृष्टि से साहित्य और समाज की असाधारण सेवा की है। आपने पाणिनि की अष्टाध्यायी की अति-विशिष्ट व्याख्या की है। ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रमुख उपनिषदों पर आपने सार-गर्भित भाष्य लिखे हैं। रामचरितमानस पर आपकी टिप्पणियां और समालोचना नितांत मौलिक हैं। आप आशुकवि हैं। आपके द्वारा रचित संस्कृत-साहित्य विपुल भी है और श्रेष्ठ भी। आप देववाणी संस्कृत के विलक्षण उपासक हैं। भारतीय परम्पराओं के श्रेष्ठतम व्याख्याताओं में आपका विशेष स्थान है।
साहित्य से जुड़े इस समारोह में भी मैं श्री रामभद्राचार्य जी द्वारा दिव्यांगजन के कल्याण हेतु किए गए अमूल्य योगदान की हृदय से सराहना करती हूं। चित्रकूट में आपने दिव्यांगजन की शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसे निरंतर आगे बढ़ाया है। आपने ‘परोपकाराय सतां विभूतय:’ के आदर्श को चरितार्थ किया है। आपने साहित्य-सेवा और समाज- सेवा, दोनों ही क्षेत्रों में, बड़े पैमाने पर योगदान दिया है।
देवियो और सज्जनो,
मैं समझती हूं कि गुलजार साहब के अनेक प्रशंसक इस सभागार में उपस्थित हैं। गुलजार साहब ने दशकों से साहित्य-सृजन के प्रति अपनी निष्ठा को जीवंत बनाए रखा है। यह कहा जा सकता है कि गुलजार साहब कठोरता के बीच कोमलता को स्थापित करने वाले साहित्यकार हैं। उनकी कला और साहित्य की साधना से इन क्षेत्रों में सक्रिय लोगों को शिक्षा और प्रेरणा लेनी चाहिए।
मैं एक बार फिर, श्री रामभद्राचार्य जी को हार्दिक बधाई देती हूं। मैं आशा करती हूं कि आप के यशस्वी जीवन से प्रेरणा लेकर, आने वाली पीढ़ियां, साहित्य-सृजन में, समाज-निर्माण में और राष्ट्र के निर्माण में सही रास्ते पर आगे बढ़ती रहेंगी।
धन्यवाद!
जय हिन्द!
जय भारत!