दिल्ली विश्वविद्यालय के 90वें दीक्षांत समारोह के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
वायस रीगल लॉज : 19.03.2013
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दिल्ली विश्वविद्यालय के 90वें दीक्षांत समारोह में उपस्थित होना वास्तव में मेरे लिए गौरवपूर्ण है। मैं, इस दीक्षांत समारोह मंा आकर सम्मानित अनुभव कर रहा हूं क्योंकि पूर्व में पंडित जवाहरलाल नेहरू और डॉ. एस. राधाकृष्णन जैसे भारत के कुछ महानतम नेता इसमें मुख्य अतिथि रह चुके हैं।
आज, दिल्ली विश्वविद्यालय हमारे देश की एक शीर्ष शैक्षणिक संस्था है। 1922 में 250 विद्यार्थियों की छोटी संख्या से शुरुआत करने के बाद, दिल्ली विश्वविद्यालय प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त कर चुका है। आज, इसे 5 लाख विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के एक प्रमुख प्रदाता के रूप में, देश और विदेश दोनों में जाना जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करके ज्ञान का खजाना बन चुका है। यह इसकी बढ़ती हुई प्रतिष्ठा का परिचायक है कि इसे मैडम क्यूरी, लॉर्ड माउंटबेटन और डॉ. जाकिर हुसैन आदि जैसी बहुत-सी महान विभूतियों को सम्मानित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
इस 90वें दीक्षांत समारोह पर मैं, सार्थक और उत्तम शिक्षा प्रदान करने का एक और सफल वर्ष पूरा करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय को बधाई देता हूं। मुझे बताया गया है कि आज चिकित्सा से लेकर ललित कला तक अनेक विधाओं में 400 डाक्ट्रेट, 6500 स्नातकोत्तर और 65000 स्नातक की उपाधियां विद्यार्थियों को प्रदान की जाएंगी। मैं सभी विद्यार्थियों को उनकी उपलब्धि के लिए तथा इस विश्वविद्यालय को, उनको अकादमिक लक्ष्यों को पूरा करने का अवसर प्रदान करने के लिए बधाई देता हूं।
देवियो और सज्जनो, मेरे लिए इस बात पर जोर देना आवश्यक नहीं है कि शिक्षा राष्ट्र के विकास में एक मौलिक भूमिका निभाती है। ज्ञान से ही वास्तविक सशक्तीकरण आता है। यदि हमारे देश को उच्च विकास के पथ पर आगे बढ़ना है तो उच्च शैक्षणिक मानकों को प्राप्त करने के निरंतर प्रयास एक अपरिहार्य जरूरत है। यदि हम आंकड़ों पर गौर करें तो देश इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति करने में सक्षम रहा है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना अवधि के दौरान, 21 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों सहित 65 नए केन्द्रीय संस्थान आंरम्भ किए गए तथा केन्द्रीय संस्थानों की संख्या लगभग 75 प्रतिशत बढ़ गई। हमारे देश के एक राज्य को छोड़कर, अब प्रत्येक राज्य में कम से कम एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है।
परंतु हमें स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि क्या हम शैक्षणिक क्षेत्र में की जा रही प्रगति से संतुष्ट हैं। इसका ईमानदार उत्तर यह होगा कि अपनी मंजिल पर पहुंचने से पहले अभी हमें एक बहुत लंबा रास्ता तय करना है।
आज शिक्षा क्षेत्र, मात्रा और गुणवत्ता से जुड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है। यह प्रसन्नता की बात है कि भारत में शैक्षिक संस्थाओं का घनत्व ग्यारहवीं योजना अवधि के दौरान, प्रति 1000 वर्ग किलोमीटर 10 से बढ़कर 14 संस्थान हो गया है। परंतु यह निराशा का विषय है कि हमारे देश के बहुत से स्थानों पर ऐसे उच्च शिक्षा संस्थान नहीं है जो इच्छुक विद्यार्थियों की वास्तविक पहुंच में हो।
यह समझते हुए कि हमारे लिए शिक्षा क्षेत्र में नवान्वेषी परिवर्तन का यह सही समय है, हमने इस वर्ष फरवरी में राष्ट्रपति भवन में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का एक सम्मेलन आयोजित किया था। सम्मेलन के दौरान, हम राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपनी शिक्षा प्रणाली में आवश्यक बदलाव लाने के लिए कुछ जरूरी तत्कालिक, अल्पकालिक और मध्यमकालिक उपायों के बारे में कुछ निष्कर्षों पर पहुंचे थे। प्रधानमंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री तथा कुलपति इस सेक्टर में उपस्थित चुनौतियों पर ध्यान देने की तात्कालिक आवश्यकता पर सहमत थे। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने गंभीरता से इन निर्णयों का कार्यान्वयन शुरू कर दिया है। हमें उम्मीद है कि फरवरी, 2014 में अगले सम्मेलन के आयोजन तक, इस दिशा में काफी प्रगति होगी।
भारत विश्व की दूसरी विशालतम शिक्षा प्रणाली है, परंतु 2010 में देश की सकल प्रवेश संख्या मात्र 19 प्रतिशत थी जो विश्व के 29 प्रतिशत के औसत से बहुत कम है। इसमें और अधिक समस्या वंचित वर्गों की कम प्रवेश दर है, जो कि राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बहुत कम है।
अधिक से अधिक विद्यार्थियों को शिक्षा सुलभ करवाने के लिए हमारे प्रयासों का लक्ष्य, उच्च शिक्षा को, विशेषकर देश के सुदूर हिस्सों की हमारी आबादी के निकट पहुंचाने का होना चाहिए। हमें विभिन्न राज्यों, क्षेत्रों और समाज के वर्गों तक उच्च शिक्षा की सुलभता के असंतुलन को दूर करना होगा।
मुक्त और दूरवर्ती शिक्षा, उच्च शिक्षा की पहुंच को बढ़ाने में सहायक हो सकती है। ग्यारहवीं योजना अवधि के दौरान हमारे देश में ऐसे कार्यक्रमों में प्रवेश संख्या 27 लाख से बढ़कर 42 लाख हो गई है। अब समय आ गया है कि हम नवान्वेषी प्रौद्योगिकियों को अधिक लोगों तक पहुंचाएं और मॉड्यूलों में ऐसा सुधार करें जो बेहतर शिक्षा प्रदान कर सकें।
उच्च शिक्षा में समावेशिता, वहनीयता पर भी आधारित होनी चाहिए। अकादमिक व्यवस्था में छात्रवृत्ति, शैक्षिक ऋण और स्वयं-सहायता योजना जैसे विभिन्न विद्यार्थी अनुकूल कार्यक्रमों को समुचित ढंग से शामिल किया जाना चाहिए।
देवियो और सज्जनो, सम्बद्ध कॉलेज हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली का आधार हैं क्योंकि उनमें लगभग 87 प्रतिशत विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं। परंतु सम्बद्धता ही पर्याप्त नहीं है। सम्बद्धता प्रदान करने वाले विश्वविद्यालयों को विशेष रूप से पाठ्यचर्या और मूल्यांकन प्रणालियों में उच्च मानदण्ड सुनिश्चित करने के लिए इन कॉलेजों का मार्गदर्शन करने पर ध्यान देना चाहिए। खासतौर से, उत्कृष्टता केन्द्र के रूप में देखे जाने वाले केंद्रीय विश्वविद्यालयों को उच्च मानदण्डों को प्रोत्साहित करना चाहिए और अन्य शिक्षण संस्थाओं के लिए प्रेरणा केन्द्र के रूप में कार्य करना चाहिए।
यदि हमें अपनी शिक्षण संस्थाओं द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा के तरीके को पुन: परिभाषित करना है तो उसका समय आ चुका है। विश्वविद्यालयों की अंतरराष्ट्रीय वरीयता के अनुसार, कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय विश्व के 200 सर्वोच्च विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं है। आप सहमत होंगे कि यह स्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती। हमें अपने विश्वविद्यालयों को विश्व का अगुआ बनाना होगा और इसके लिए अन्य देशों में प्रयोग हो रही उत्तम पद्धतियों का अध्ययन करके उनमें अपनी परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन करके अपनाना होगा।
शिक्षकों की कमी और शिक्षण का घटिया स्तर हमारी प्रमुख चिंता है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के 51 प्रतिशत पद रिक्त पड़े हैं। हमें इन रिक्तियों को भरने के लिए तत्काल कदम उठाते हुए, प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षण और सहयोगात्मक सूचना एवं संचार आदान-प्रदान के नए तरीके विकसित करने होंगे।
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा मिशन द्वारा प्रदान सुविधाओं का प्रयोग करते हुए, विख्यात प्रोफेसरों के व्याख्यानों को, मुख्य नगरों और शहरों से दूर स्थित शिक्षा संस्थाओं तक, प्रसारित किया जा सकता है। अकादमिक स्टाफ कॉलेजों द्वारा संचालित शिक्षक पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों को भी इसी प्रकार प्रसारित किया जा सकता है।
प्रत्येक विश्वविद्यालय को 10 से 20 ऐसे ‘प्रेरक शिक्षकों’ की पहचान करनी चाहिए जो पाठ्य पुस्तकों से आगे सीखने के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित कर सकते हैं। यदि ऐसे शिक्षक आपस में तथा विद्यार्थियों के साथ संवाद करेंगे तो शिक्षण की गुणवत्ता बढ़ सकती है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा मिशन के जरिए इन व्याख्यानों का प्रसारण सुदूर शिक्षण संस्थानों को भी किया जा सकता है।
नवान्वेषण भावी प्रगति की कुंजी है। नवान्वेषण में भारत का रिकॉर्ड अधिक उत्साहजनक नहीं है। 2011 में भारत में पेटेंट के लिए प्रस्तुत आवेदनों की संख्या लगभग 42000 थी। यह 2011 में चीन और अमरीका प्रत्येक के 5 लाख से अधिक प्रस्तुत आवेदनों से काफी कम है। विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या वाले भारत का हिस्सा विश्व के कुल पेटेंट आवेदनों में मात्र 2 प्रतिशत ही है।
हमारी उच्च शिक्षा संस्थाओं में अनुसंधान और नवान्वेषण पर कम बल दिया जा रहा है। 2011-12 में पूर्व स्नातक और उससे ऊपर के स्तर पर प्रवेश लेने वाले 260 लाख विद्यार्थियों में से केवल एक लाख अथवा 0.4 प्रतिशत ने पीएच.डी. में पंजीकरण करवाया था। अत: अनुसंधान और विकास केंद्रों के अलावा, हमारी उच्च शिक्षण संस्थाओं द्वारा नवान्वेषण को जोरदार ढंग से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
हमें उद्योग विकास पार्कों की स्थापना, शोध अध्येतावृत्तियों में वृद्धि, अन्तर-विश्वविद्यालय और अंतरा विश्वविद्यालय सहयोग के माध्यम से अन्तर विधात्मक शोध को प्रोत्साहन तथा हमारे उत्कृष्टता केन्द्रों का पर्याप्त सशक्तीकरण करना चाहिए।
महत्त्वपूर्ण उच्च शिक्षण संस्थाओं में हमारे अकादमिक और अनुसंधान के पद, प्रतिभाओं की कमी के कारण खाली हैं। हमारी व्यवस्थाएं प्रतिभाओं को रोके रखने में सहायक नहीं है और इसलिए यह देश के भीतर और बाहर बहुत से संगठनों द्वारा उन्हें आकर्षित कर लिया जाता है।
हम प्रोत्साहन की एक समुचित प्रणाली द्वारा बौद्धिक पूंजी के पलायन को हतोत्साहित कर सकते हैं और साथ ही साथ विदेशों में कार्यरत भारतीय मूल के विद्वानों को एक निश्चित समय के लिए देश वापस आने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। ऐसी नीति से विचारों के आदान-प्रदान तथा अध्यापन और अनुसंधान की नई पद्धतियों की प्राप्ति हो सकती है।
देवियो और सज्जनो, हमारे देश में बहुत से जमीनी स्तर के नवान्वेषक हैं जिनके विचारों को प्रौद्योगिक और वाणिज्यिक सहयोग से विपणन योग्य उत्पादों में बदला जा सकता है। इन नवान्वेषणों को मार्गदर्शन की जरूरत है और हमारे विश्वविद्यालयों को, ज्ञान के स्रोत के रूप में, आगे आना चाहिए।
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने ‘समूह नवान्वेषण केंद्र’ नामक अन्तर-विधात्मक मंच की स्थापना की है। मुझे उम्मीद है कि प्रायोगिक परियोजना चला रहे विद्यार्थियों को जमीनी स्तर से कक्षा तक की यात्रा सार्थक लगेगी और वे अपनी शिक्षा का अधिक सार्थक ढंग से, देश की जरूरतों के अनुसार उपयोग कर पाएंगे।
रंगभेद के बाद दक्षिण अफ्रीका के संस्थापक नेल्सन मंडेला ने एक बार कहा था, ‘‘शिक्षा सबसे शक्तिशाली अस्त्र है जिसका प्रयोग आप दुनिया को बदलने के लिए कर सकते हैं।’’ मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि दिल्ली विश्वविद्यालय हमारे देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का प्रयोग, नए पाठ्यक्रम के निर्माण के केंद्रीय विषय के रूप में कर रहा है।
हमारे विश्वविद्यालयों में उत्कृष्टता की संस्कृति को बढ़ावा देना भी जरूरी है। प्रत्येक विश्वविद्यालय में कम से कम एक केंद्र की पहचान करके इस दिशा में शुरुआत की जा सकती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा प्रत्येक विश्वविद्यालय, एक या दो वर्षों के भीतर ऐसे केन्द्रों के निर्माण के लिए सहयोग कर सकते हैं।
जल, पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा और शहरीकरण जैसे विषयों के लिए आंकड़ों के व्यापक संग्रहण, विश्लेषण और अनुसंधान की आवश्यकता होती है। इन मुद्दों पर एक अकादमिक ढांचा प्रदान करने के विश्वविद्यालय के प्रयास हमारे नीति-निर्माताओं की जानकारी तथा प्रभावी योजनाओं के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान दे सकते हैं।
विश्वभर के अनुभवों से पता चलता है कि अपने कॉलेज के विकास में स्नातकों की दिलचस्पी और भागीदारी से श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त हुए हैं। मुझे विश्वास है कि इस प्रयास में सक्रिय भागीदारी के लिए इस विश्वविद्यालय के स्नातकों को प्रोत्साहित किया जाएगा।
मैं, सभी विद्यार्थियों को उनके जीवन और जीविकोपार्जन के लिए शुभकामनाएं देता हूं और आपसे महात्मा गांधी की इस सलाह पर अमल करने का आग्रह करता हूं, उन्होंने कहा था, ‘‘जीओ तो ऐसे जीओ जैसे कल तुम नहीं रहोगे। सीखो तो ऐसे सीखो जैसे हमेशा के लिए सीख रहे हो।’’ मैं इस विश्वविद्यालय के प्रबंधन और संकाय के भावी प्रयासों की सफलता की भी कामना करता हूं।
धन्यवाद,
जय हिंद!